जाति आधारित जनगणना के सियासी मकसद

भारत में जनगणना एक पुरानी सरकारी कवायद है। देश में साल 2011 में आखिरी जनगणना हुई थी ।उस समय भी जाति आधारित जनगणना को लेकर काफी बहस हुई थी।अब देश में फिर से 2021 में होने वाली जनगणना के साथ-साथ जातिगत जनगणना की मांग भी तेज हो गई है। सियासी पार्टियां जातिगत जनगणना के आधार पर राजनीतिक समीकरण सेट करने में जुट गई हैं।महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने जनवरी में विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर जातिगत आधारित जनगणना प्रस्ताव पेश किया था, जिसे ध्वनि मत से पारित कर दिया गया था।यूपी विधानसभा में पिछले दिनों यह मुद्दा जोर  के साथ उठा था । समाजवादी पार्टी ने जातिगत जनगणना की मांग को लेकर उत्तर प्रदेश में मोर्चा खोल दिया है. अखिलेश यादव ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके जातिगत जनगणना की मांग उठाई तो सपा विधायकों ने विधानसभा में इस मुद्दे को लेकर जमकर हंगामा किया. बिहार विधानसभा में जहां जेडीयू-बीजेपी की साझा सरकार है, वहां पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जातिगत जनगणना कराने का प्रस्ताव पास कराकर केंद्र सरकार को भेज दिया है।

जाति आधारित जनगणना के सियासी मकसद

दरअसल, जातिगत जनगणना की मांग के पीछे एक बड़ा सियासी मकसद है. देश में मंडल कमीशन की रिपोर्ट 1991 में लागू की गई, लेकिन 2001 की जनगणना में जातियों की गिनती नहीं की गई.इसके बावजूद देश की राजनीतिक समीकरण बदले हैं, जिनमें ओबीसी समुदाय का सियासत में दखल बढ़ा. समाजवादी डॉ. राम मनोहर लोहिया के समय का नारा - जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी। यह नारा आज भी लग रहा है।केंद्र से लेकर राज्यों तक की सियासत में ओबीसी समुदाय की तूती बोलने लगी और राजनीतिक दलों ने भी उनके बीच अपनी पैठ जमाई.कई राज्यों की सियासत में पिछड़ा वर्ग निर्णायक फैक्टर बन रहे हैं। राज्य के  सियासत समीकरण  पिछड़ा वर्ग के जरिए तय होने लगी है। अलग-अलग राज्यों में  पिछड़ा वर्ग से क्षेत्रीय नेतृत्व उभरे हैं। अपने रसूख को और बढ़ाने के लिए राजनितिक दल पिछड़ा वर्ग नेतृत्व जातीय आधार पर जनगणना कराना चाहते हैं। लेकिन अब तक अधिकृत रूप से इस बात का कोई आंकड़ा नहीं है कि देश में पिछड़ा वर्ग की आबादी कितनी है।